लघुव्यंग्य –देवी मां
प्रत्येक सोमवार को उसे देवी की सवारी आती है
|लोगो का मजमा लगा रहता उसके द्वार पर | लोग अपनी समस्याएं सुलझाने आते हैं देवी मां
की सवारी से |
यह
क्रम महीनों से चला आ रहा है | मगर इस सवारी के उपक्रम को लेकर मेरे मन में कई
प्रश्न कौंध रहे थे |एक दिन मैंने उससे कहा –‘’ भाभी जी , एक बात पूछूं |’
‘’ कहो |’’
‘’ आप भाईसाब से इतनी परेशान रहती हैं | फिर
देवी मां की सवारी आपकी समस्या क्यों नहीं
हल करती | जबकि लोगों की भीड़ आपके द्वार पर होती है ... समस्या सुलझाने को लेकर
...| ‘’
‘’ भाईसाब मुझे एक वचन दो | किसी से न कहोगे
|संबंधो की दुहाई देकर मैं हामी भरा | वह
बोली – ‘’ भाईसाब आप देख रहे हैं | ये तो अपनी कमाई को पीने में उड़ा देते हैं | तब
मुझे अपने व एक बच्चे का पेट भरना बड़ी समस्या थी मेरे सामने ...दिन -दिनभर भूख में
रोता बिलखता बच्चा मेरा ...| उसके आँख में आंसू आ गए | किसी तरह खुद को संभालती
हुई बोली –‘’ बहुत सोच के बाद इस आधुनिक
युग में भी लोगों के मष्तिष्क में जड़ जमाए
रूढ़िवादिता के अंधत्व को पहचाना मैंने| फिर यह कारोबार चुन लिया |आज भीड़
मेरे चरणों में चढ़ोतरी भी देती है
और शोहरत भी |बताइये पेट चलाने के लिए मैंने क्या बुरा किया .....|’’
मैं
अनुत्तरित था |किसे झूठ कहूं ? उसे या लोगों के दिमाग में भरी रूढ़िवादिता को |
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